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वर्षों की रौशनी छन भर में विलुप्त होती हुई नजर आई , जहाँ अब स्थिति गतिशील होने वाला था और दिन पर दिन विकास की तरफ उंचाई छूता हुआ दिखाई पड़ने वाला अफगानिस्तान की लड़ी क्यूँ ढीली पड़ गई ? यह सोंच का विषय है !
10 दिनों के अन्दर यह कैसे संभव हो सकता है कि तालिबान अफगानिस्तान पर अपना कब्ज़ा जमा ले और अफगानिस्तान के नेतागण और सैनिक उनके आगे अपनी सत्ता और हथियार सौप दे | एक लोकतांत्रिक देश की सत्ता का पिलर इतना कमोजोर कैसे हो सकता है कि उसका छत भर - भराकर जमीं पर धुआंमय बना दे ?
अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ़ गनी जो अपनी कुर्सी को छोड़कर कहीं और जा चुके हैं , उनके शब्द - बहुत से लोग अनिश्चित भविष्य के बारे में डरे हुए हैं और चिंतित है ! तालिबान के लिए यह जरुरी है कि वह तमाम जनता को पुरे राष्ट्र समाज के सभी वर्गों और अफगानिस्तान के औरतों को यकीन दिलाएं और उनके दिलों को जीते |
राष्ट्रपति अशरफ़ गनी के ये शब्द दिल बहला देने वाले जरुर है , मगर वे भगोरा शब्द से वंचित नहीं रह पायेंगे | पूरी दुनियां आज उन्हें भगोरा नाम दे रही हैं | अफगानी नागरिकों का एक आह ! और हर आह ! के पीछे यहीं कि उन्होंने नागरिकों को बेसहारा छोड़ दिया | इतिहास लिखी जायेगी तो उस वक्त ऐसे राष्ट्रपति के लिए कौन सा शब्द और शैली इस्तेमाल किया जाएगा , ये तो वक्त के हाथ है | मगर परिस्थिति चाहे जो भी हो , लीडर ऐसे नहीं होते जो अपने दोनों हाथों को ऊपर उठा दे और अपने रास्ते चल दे | जैसे की नैया को खेवैया की कोई जरुरत नहीं | जिस किसी नेता को नाव चलाने हीं नहीं आये तो नाविक बनने का शौक भी नहीं पालना चाहिए | समुन्द्र में खुद छलांग लगा लिए और तैरकर बाहर निकल गए मगर समुन्द्र में तैरता हुआ नाव को किसके सहारे छोड़ दिया ? जिस नाव पर बैठी जनता आपके सहारे चल रही थी !
सवाल उठा है और उठता हीं रहेगा कि हो सकता है अशरफ़ गनी को इस बात का आभाष हो | उन्हें पता हो कि यह सत्ता हमसे बहुत जल्द तालिबान के हाथों में जाने वाला है और वे इसी वक्त का इंतज़ार कर रहे हो | अपने बचाव में दामन भी नहीं बढ़ाया और सत्ता कर दिए तालिबानी के हवाले | यह कोई व्यक्तिगत वस्तु नहीं थी , जिसे किसी को वगैर शर्त या पूछे दे दी जाए | यह देश तो एक - एक नागरिक का अमानत है और अधिकार भी , जिसे एक विचारशील बुद्धिमान व्यक्तित्व के धनी व्यक्ति को सौंपा जाता है और अशरफ़ गनी को ऐसा हीं मानते हुए सत्ता सौंप दी | यह कैसा कमजोर हाथ था की भार उठा भी न सके और न गिरा हीं सके ! भाग निकले बचकर , क्यूंकि अपनी जान प्यारी थी |
अफगानिस्तान की सत्ता , सैनिक और अमेरिकी ख़ुफ़िया तंत्र , सबके - सब हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे और कहा - आ तालिबान ले ले देश |
2001 में अमेरिका पर बड़ा हमला हुआ था , वह सितम्बर का महिना था | इस हमले से अमेरिका में लगभग 3 हजार लोग मारे गए थे | जिसके लिए उसने अलकायदा को जिम्मेदार ठहराया था | इसके बाद अलकायदा का समर्थन करने के आरोप में अमेरिका ने अफगानिस्तान पर हमला किया और तालिबान को सत्ता से बेदखल कर , वहां नई सरकार बनाने के रास्ते तैयार कर लिए और आज की तारीख में भी वहां अमेरिकी सैनिक मौजूद थी , फिर ऐसा कैसे हुआ ?
आज सभी कुछ तालिबान के हाथ में जा चूका है | सत्ता वाले धीरे - धीरे छट गए | अफगानिस्तान की राजधानी काबुल पर तालिबान ने बिना संघर्ष के हीं कब्ज़ा जमा लिया और सूबे का गवर्नरों ने स्वयं को आत्मसमर्पण कर दिया | इससे साफ़ जाहिर होता है कि - वहां की राष्ट्रपति की नीति सही नहीं थी , यह कहा जा सकता है | आज इस देश की त्राहि का जिम्मेदार कौन है ? एक बार देश छीन जाए हाथ से तो उसे दूबारा पा लेना बड़े जिगर वालो का काम है | इतना आसान नहीं है , जितना की अशरफ़ गनी ने समझा होगा ! क्यूंकि कहा जाता है - अपनी आजादी को हम हरगिज भुला सकते नहीं , सर कटा सकते है लेकिन सर झुका सकते नहीं | लेकिन अफसोस इस बात का है कि - जनता ने जिस सर पर भरोषा किया , वो सर न कटा न झुका |
हमें याद आ रहा है - कश्मीर का पुलवामा हमला | हमारे देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सुझबुझ ने अपने हाथ से कश्मीर को जाने नहीं दिया | हाँ इस बात का हमें अफ़सोस है और रहेगा कि - उस लड़ाई में हमारे बहुत सारे भाई शहीद हो गए और और हमारी बहुत सारी बहाने की मांग से सिंदूर धुल गए | जिंदगी रेगिस्तान बनने के बाद भी हमारी वो बहने आज भी यहीं गाती है - हर कर्म अपना करेंगे ऐ वतन तेरे लिए , दिल दिया है जां भी देंगे ऐ वतन तेरे लिए |
परिस्थिति और माहौल देखकर सुरक्षा की दृष्टि से जगह - जगह पर स्वयं को खड़ा करना पड़ता है , लड़ना पड़ता है अपने जनता के बचाव के लिए | इसके बावजूद अफगानिस्तान में एक उम्मीद का चिराग आज भी जल रहा है , जिसकी ज्योत से अफगानिस्तान में पुनः रौशनी आ सकती है | अफगानिस्तान में एक बड़े नेता आज भी मौजूद है , वह अफगानिस्तान छोड़कर भागे नहीं | बल्कि पूरी ईमानदारी से डटे है और तालिबान से लड़ाई की बात कर रहे हैं | अब आमने - सामने सामना होगा |
ये सच है कि तालिबान ने पुरे अफगानिस्तान पर कब्ज़ा जमा लिया है | परन्तु एक ईलाका ऐसा है , जहाँ उनकी पहुँच अभी भी नदारद है | वहां की आबादी 1 लाख 70 हजार के करीब है | वहां का बड़ा नेता ऐसा है कि उसने घोषणा करी है कि - सीने में गोली खा लेंगे , परन्तु तालिबान के आगे झुकेंगे नहीं | कहते है कि - सर कटा सकते है लेकिन सर झुका सकते नहीं | अफगानिस्तान को तो ऐसे हीं राष्ट्रपति की जरुरत थी |
आखिरकार बोर्डर पर जवान किस लिए तैनात किये जाते है , ताकि वहां के नागरिक आराम से रह सके | देश की जिम्मेदारी सबसे पहले वहां की सत्ताधारी और वर्दीधारीयों पर टिकी है | वर्दीधारी जागते हैं तो जनता चैन से सोती है | किसी भी देश की सुरक्षा की जिम्मेदारी सुरक्षाकर्मीयों पर हीं टिकी होती है , जिसे बोर्डर के जवान संभालते है | अगर हर जगह के नेता अशरफ़ गनी की तरह कमजोर पड़ जाए तो किसी भी देश को डूबने या दूसरे के द्वारा कब्ज़ा कर लेने में ज्यादा वक्त नहीं लगेगा |
हर नागरिक तैयार होती है अपनी रक्षा के लिए , देश की सुरक्षा के लिए | चाहे वह किसी भी देश का मामला हो , देश सबसे पहले होता है | इसी सोंच से सभी कदम आगे बढाते हैं | मात्र 70 हजार लड़ाके थे तालिबान के फिर अफगानिस्तान के साढ़े 3 लाख सैनिक घुटने क्यूँ टेक दिए ? यह तो ऐसा हो गया , जैसे कोई दुकानदार अपनी दूकान बेचकर चाबी खरीदार को देकर आसानी से निकल जाता है | जैसे की राष्ट्रपति अशरफ गनी , देश की पूरी जिम्मेदारी तालिबानों को देकर निकल पड़े | ........ ( न्यूज़ / फीचर :- भव्याश्री डेस्क )
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