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एक कहावत है - कच्चा बांस को लिबाना बहुत आसान है , पका बांस टूटना पसंद करता है झुकना नहीं | यूँ कहा जाए तो बच्चे मिट्टी के गोले के समान है , उसे आप जिस आकृति में ढाले | परन्तु बच्चे के परिपक्व होने के बाद परिवार उन्हें अपनी सोंच में ढालना चाहेंगे तो शायद यह असंभव है !
गुरुवार को आगरा के सिटी मजिस्टेट के पास एक बुजुर्ग जिनका नाम गणेश शंकर पाण्डेय है , ये आगरा के पीपलमंडी निरालावाद के रहने वाले है | इन्होने अपनी 225 गज की प्रॉपर्टी आगरा के जिलाधिकारी के नाम की | उन्होंने अपने बेटे से परेशान होने की बात जिलाधिकारी को बताते हुए अपनी पूरी प्रॉपर्टी जिलाधिकारी के नाम लिखवा दी | इसके लिए वह रजिस्टर्ड वसीहत भी लाये थे | जिलाधिकारी ने उनके प्रॉपर्टी के सारे कागजात ले लिए है |
छनकर जो बाते सामने आई है , उसे यहीं पता चला है कि - इनका घर भरा पूरा और परिवार में किसी भी चीज की कमी नहीं है | इनका बेटा दिग्विजय , बहु और पोते - पोती साथ हीं रहते है | इनका लड़का संपति की मांग कर रहा था , यहीं मांग परेशानी का कारण बना |
जिलाधिकारी को दिए गए सम्पति की कीमत लगभग 2 करोड़ रुपये की है | गणेश शंकर पाण्डेय एक मशाला व्यापारी है और उनके अनुसार वह अपने बेटे से बहुत परेशान रहते है और उन्होंने काफी सोंचने समझने के बाद यह कदम उठाया |
सूचना के आधार पर गणेश शंकर पाण्डेय का कहना है कि - उन्होंने कई बार कोशिश की अपने बेटे दिग्विजय को व्यापार की गद्दी पर बैठाने का | मगर बेटा तैयार नहीं हुआ और इसी उलझन को लेकर उन्होंने अपनी पूरी संपति जिलाधिकारी के नाम कर दी | जबकि बेटा दिग्विजय संपति का कुछ अंश अपने हक़ में लेने की बात करता रहा है |
मामला बहुत सुलझा सा था जिसमे एक बेटा अपने पिता से धन नहीं मांगेगा तो किससे मांगेगा ! मालूम हो कि - उसकी पत्नी और बच्चे इनके साथ हीं रहते है ,बावजूद एक दादा ने अपने छोटे छोटे पोते - पोती के साथ ऐसा अन्याय कर उसके हक़ को छिनकर जिलाधिकारी की झोली में डाल दिया | माना जा सकता है कि - दिग्विजय की रूचि व्यापार में नहीं होगी , इसलिए एक पिता ने अपनी रूचि पर बेटे को नहीं चलने के कारण संपति से वंचित कर दिया | घटना यह नहीं दर्शाता कि - बेटे ने पिता के साथ क्रूरता बरती , बल्कि पिता के लगाए गए व्यापार को आगे नहीं बढ़ाना आक्रोश का कारण बना |
हर पिता को यह समझना जरुरी हो जाता है कि - हर इंसान की अपनी सोंच / समझ और रूचि होती है | ऐसे में बच्चो को मजबूर करना उचित नहीं और बेटे के हक़ की संपति से उसे वंचित करना एक पिता के लिए निर्दय होने का सबूत पेश करता है , जो समाज के लिए अच्छी सोंच नहीं कही जा सकती | साथ हीं हम यह भी कहना चाहेंगे कि - एक पिता ने बागवान बनने की भी कोशिश नहीं की , नहीं तो आज बहुत सारे बेटे / बेटी उनके साथ खड़े रहते उनके व्यापार को आगे बढ़ाने के लिए | व्यापारी ने ऐसा भी नहीं किया ... |
हम किसी के निर्णय व कमाई गई संपति जिलाधिकारी के नाम करने पर कोई दोषारोपण नहीं करते हुए सिर्फ अपने विचार प्रस्तुत कर रहे है , जिसपर हमारा हक़ है | बच्चो के हक़ को सरकारी खजाने में डालकर बच्चो को निःसहाय बना देना यह बुद्धिमानी नहीं ! अब दिग्विजय क्या आपका व्यापार संभाल लेंगे ? यह एक पिता की बड़ी भूल है , बावजूद अभी तो पिता की बाते सामने आई है | बहुत जल्द बेटे दिग्विजय की बाते भी सामने आएगी | साथ हीं पड़ोसी व समाज भी खामोश नहीं रहेंगे , पूछने पर सब कुछ स्पष्ट हो जाएगा , जिससे गणेश शंकर पाण्डेय के विचार का खोखलापन भी छनकर सामने आएगा | इसीलिए कहा गया है - बच्चे को आरंभिक दौर से हीं सजाईये / सवांरिये ताकि आपके विचार व घर के नक़्शे कदम पर वो चले | ढील दिए तो वे मनमानी तरीके से आसमान में झूमते पतंग की तरह नजर आयेंगे , जिसके उलझते हुए डोर को समझाना बड़ा हीं मुश्किल है |
चलते - चलते एक बात और कि - बात नहीं मानोगे तो रोटी किसी और को देंगे , तुम्हें भूखे रखेंगे , यह बुजुर्ग शरीर का एक जिद्द हो सकता है निर्णय नहीं | कहीं ऐसा न हो कि उन्हें अपने किये पर पश्चताना पड़ जाए ,खैर ........ | ...... ( न्यूज़ / फीचर :- आदित्या , एम० नूपुर की कलम से )
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