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आज 5 मई है , एक यादगार दिवस | उनके लिए जो संगीत प्रेमी है , जो फिल्मीं गीत - संगीत को पसंद करते है और साथ हीं उनके लिए भी जिन्हें संगीतकार नौशाद के हुनर से प्यार है |
नौशाद बॉलीवुड का एक ऐसा चेहरा व नाम है जिन्हें प्रसिद्धि के मामले में उँगलियों पर गिने जाने वाले नाम में उनके नाम को भी अंकित किया जाएगा | 67 फिल्मों में संगीत देकर लोगों को दीवाना बनाने वाले नौशाद के गुणों को तरासने वाले , उस्ताद मुश्ताक अली खान , उस्ताद झंडे खान और पण्डित खेमचन्द्र प्रकाश का नाम जुड़ा रहेगा |
नौशाद जब बच्चे थे तो मुक फिल्में बना करती थी | 1931 में आवाज वाली पहली फिल्म बनी थी "आलम आरा " जिसे निर्देशित किया था आर्देशिर ईरानी ने | उस वक्त भी इनके मन में चाहत थी संगीत सिखने की | 1937 में घर से भागे , 40 में मौका मिला , 44 में कदम आगे बढ़ा , 54 में बैजू बावरा के लिए बेस्ट म्यूजिक डायरेक्टर का फिल्म फेयर अवार्ड , 92 में भारत सरकार की ओर से पद्मभूषण से सम्मान |
मुंबई का फूटपाथ , जिसे हीरे की परख है और मुंबई से कोई खाली नहीं लौटता | मुंबई का ब्रांडवे सिनेमाघर के सामने फूटपाथ पर नौशाद ने अपनी दुनियां बसायी | सपने देखे थे कि एक रोज हमारी संगीत , दी हुई फिल्म इसी सिनेमाघर में लगेगी और उनके सपने सच हो गए | बैजू बावरा इसी सिनेमाघर में रिलीज हुई |
आज नौशाद की पूण्यतिथि है | हम इनको अपनी श्रधांजलि इन्हें याद कर के और इनकी छोटी सी कहानी जो हकीकत के पन्नों में अंकित है , सुनकर करेंगे |
आज का दिन हमारे लिए काफी दुःख भरा था | जब 5 मई 2006 को नौशाद के निधन ने हमारे भारत को क्षति पहुंचाई | नौशाद का जन्म नवाबों का शहर लखनऊ उत्तरप्रदेश के एक मुस्लिम परिवार में 25 दिसम्बर 1919 को हुआ , जहाँ उस घर में संगीत पर पाबन्दी थी | लगता है , नए नियम बनाने वाले का जन्म भी , उसी घर में होता है जहाँ पुराने नियम मौजूद हो | खैर .... आज की तारीख में तो ऐसी कितनी कहानियां है , परन्तु उस वक्त में शायद उंगली पर ऐसी हकीकत कहानियों की गिनती की जा सकती है | जिसमे एक नौशाद की कहानी थी कि - इनके अब्बू ने कहा , घर में रहना है तो संगीत छोड़ना पड़ेगा , फिर नौशाद ने घर को हीं छोड़ दिया |
संगीत का प्यास और नशा इतना था कि , बुझाये न बुझे और उतारे न उतरे | फिर क्या था ऐसी कहानियों पर हीं तो इतिहास लिखा जाता है ,जैसे - मुगल ए आजम | भारतीय सिनेमाघरों में यह फिल्म मील का पत्थर साबित हुआ और इस इतिहास में दर्ज फिल्म के गीत को संगीत दिया था नौशाद ने | "प्यार किया कोई चोरी नहीं , फिर छुपछुप आहें भरना क्या , जब प्यार किया तो डरना क्या" | नौशाद ने भी संगीत से प्यार किया और लखनऊ छोड़कर मुंबई पहुँच गए | दादर के फूटपाथ पर गुजारा करने लगे | हलाकि वे आये तो थे अपने परिचय वाले के यहाँ | मगर उनके यहाँ इनके हुनर की कद्र नहीं थी |
मुंबई वो नगरी है , जहाँ रोटी तो कोई दे देगा मगर ! यहाँ छत नहीं मिलता | उस वक्त का नजारा तो और भी गर्म व कठिन था | इस माहौल में सूर्य की हल्की रौशनी इनके चेहरे पे पड़ी और उस्ताद झंडे खान ने 40 रुपये महिना की तनख्वाह पर इन्हें अपने पास रख लिया और फिल्म कंचन में इन्हें असिटेंट का काम मिला | तो फिर तनख्वाह भी बढ़कर 60 रुपये हो गए , यानि धीरे - धीरे जिंदगी में परिवर्तन और परिवर्तन हीं सफलता की पहली निशानी है |
1940 में बनी प्रेमनगर , जिस फिल्म ने इन्हें इंडिपेंडेंट खड़ा कर दिया | मगर ! फिल्म रिलीज नहीं हुई और सपने डिब्बे में कैद कर दिए गए | लेकिन नौशाद की किस्मत हार कहाँ मानाने वाली थी , 1944 में फिल्म रतन ने दस्तक दी और यह फिल्म इतनी चली की इसके गीत और संगीत ने हीं इस फिल्म के बजट को अपनी कमाई से ढक दिया और अब ! सूरज आधा निकल चुका था और मिलाना आरंभ हुआ दस्तक पर दस्तक संगीत के लिए | 1955 में बनी फिल्म बैजू बावरा , इस फिल्म की धुन व गीत ने सिर्फ धुम हीं नहीं मचाया बल्कि इन्हें बेस्ट म्यूजिक डायरेक्टर का फिल्म फेयर अवार्ड भी दिलाया |
मुगल ए आजम के बनने के बाद तो नौशाद के जीवन में सपनों से ज्यादा हीं फूलों की बारिश होने लगी | अब उनके जीवन का सूरज पुरा उदय हो चूका था | उस जामने में इनकी धुन ने - सुरैया , शमशाद बेगम , मोहम्मद रफ़ी आदि को मौका भी दिया तरासने का | मदर इंडिया भारत की पहली फिल्म थी जिसे ऑस्कर के लिए भेजा जाना था और इस फिल्म के गीत को भी नौशद ने हीं संगीत दिया था |
पाकीज़ा , गंगा - जमुना , बाबुल , मेरे महबूब , कोहिनूर आदि न जाने कितने फिल्मों में इन्होने संगीत का जादू बिखेरा और दीवाना बना दिया लोगों को | 1981 में इन्हें दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया गया | 2005 के बाद नौशाद कि संगीत की धून खामोश हो गई , इसके बाद कोई नया धून नहीं बजा , क्यूंकि इनकी आखिरी फिल्म थी ताजमहल जो 2005 में बनी थी |
5 मई 2006 को नौशाद ने दुनियां से अपनी विदाई ले ली और उसी सिनेमाघर के फूटपाथ पर छोड़ दिए अपना निशान | किसी शायर ने लिखा है :- हम छोड़ चले है महफ़िल को , याद आये कभी तो मत रोना , मगर ! आज फिर हम इन्हें याद कर रो पड़े | क्यूंकि आज हीं के दिन नियति ने भारत में इनकी जुदाई लिखी थी | नौशाद हमारे बीच नहीं रहे मगर ! जबतक धरती और आसमान कायम है इनकी कहानी और इनकी धुन दोहराई जाएगी | इनके संगीत के बिना सवेरा नहीं , क्यूंकि आज भी पुराने गीतों का हीं दौर है | कहते है ओल्ड इज गोल्ड तो आज भी पुराने गीत के बिना जिंदगी अधूरी सी है | जब भी किसी शो या संगीत समारोह में पुराने गाने नहीं बजते , तब तक आज के दौड़ के संगीत का सवेरा नहीं होता |
इसी तरह नौशाद के धुन में मग्न है आज नए संगीतकार और फेर बदलकर उनके संगीत के कुछ अंश अपनी धुन में डाल हीं देते है | चूकि आज के संगीतकारों के मन के गुरु नौशाद कहे जा सकते है | ...... ( फ़िल्मी फीचर :- एम० नूपुर )
नोट :- बैजू बावरा का गीत - वो दुनिया के रखवाले , सुन दर्द भरे मेरे नाले ..... ने हिन्दुस्तान में धूम मचा दिया | नौशाद जी ने अपने एक इंटरव्यू में कहा था कि - इस गाने के बाद रफ्फी साहब ने कई दिनों तक नहीं गया , उनके गले से खून आ गया था | नौशाद जी ने 40 रुपये की नौकरी से जीवन की शुरुआत कर फिल्मों में संगीत के लिए 1 लाख रुपये तक का सफ़र तय किया , जो एक मिशाल है और प्रेरणा भी |
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