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मेरी पोस्टिंग बैंगलोर के मेंटल हॉस्पिटल में हुई थी | मन बहुत चंचल था , कैसे सुबह हो और हॉस्पिटल पहुंच जाऊं , नए-नए डॉक्टर से मिलूं और उन मरीजों से भी जो अपना दिमागी संतुलन खो बैठे हैं |
रिकॉर्ड अच्छे होने के कारण मेरा नाम भी उन डॉक्टरों के साथ जुड़ गया था , जो आज मुझसे कई साल सीनियर थे | मैंने प्राइवेट शोध से कई मरीज को संतुलन में लाया था | बेंगलुरु भी इसी सिलसिले में मुझे बुलाया गया था |
गाड़ी निर्धारित समय पहुंच गई , मैं भी लगभग तैयार ही थी , कॉफी पिया और निकल गई हॉस्पिटल के लिए | डॉक्टरों और मरीजों से मिली , मरीजों में एक चेहरा बहुत ही ज्यादा पहचाना सा लगा , लेकिन कुछ ख्याल ही नहीं आया | दूसरे दिन जब मैंने उनकी फाइल पलटी तो शिमला का नाम और उनकी तस्वीर पर गौर की तो एक धुंधली सी याद आने लग गई , तभी कुछ लोग मिलने पहुंच गए और यह ख्याल फिर अधूरा ही रह गया |
सारी रात मैंने उन्हें ही सोचते , करवट बदलते गुजार दिया , लेकिन कुछ याद नहीं आया | गाड़ी की आवाज सुनते ही मेरी नींद खुल गई , न जाने कब नींद आई कि सर भारी सा लग रहा था | हॉस्पिटल जाने का मन नहीं हुआ , लेकिन जाना तो था ही , मनमाने ढंग से निकल गई |
प्रवेश करते ही 50 / 55 साल के मरीज को मैंने रूम नंबर 11 से निकलते हुए देखा | एकदम जाना पहचाना सा चेहरा था उसका |
अपने केबिन में नर्स को बुलाया और फिर नए ढंग से रूम नंबर 11 के बारे में मालूम किया , तो दिल बेचैन पागल सा हो गया | मै फूट पड़ी वहीं हॉस्पिटल में , भूलकर कि मैं एक डॉक्टर हूं और गीली जमीन की भांति आंसुओं में धसती चली गई |
मुझे याद है वह दिन - जब मैं सातवीं में पढ़ती थी | मेरे पापा बैंक में कार्यरत थे और उनका तबादला शिमला में हो गया | हम लोग शिमला गेस्ट हाउस में पहुंचकर मकान की जानकारी ली , विज्ञापन देखा और पहुंच गए मिस्टर जोशी के घर |
वे लोग भी सरकारी सर्विस और सीमित परिवार वाले को ही मकान देने के मूड में थे और हम लोग थे भी मात्र 3 - मै , पापा और मम्मी सो मकान मिल गया |
उस शाम मिस्टर जोशी के घर हमारा खाना हुआ | उनके घर में मिस्टर जोशी , उनकी पत्नी , दो लड़का और एक छोटी प्यारी सी कॉलेज में पढ़ने वाली लड़की - नाम लवली , इसी साल मैट्रिक पास किया था | छुट्टी वाले दिन हम लोग शिमला घूमने निकले तो पापा ने दीदी को भी जिद्द्कर साथ ले लिया | पीले रंग का सलवार कुर्ता उन पर खूब फब रहा था | क्यों न हो ? आखिर दीदी भी तो इतनी ज्यादा खूबसूरत थी जैसे गुलाब अभी-अभी खिला हो |
मुझे याद है - दीदी ने कॉलेज में जब से दाखिला लिया था , तब से कॉलेज के लड़कों का होश उन्हें देखकर जाता रहा | कितने लड़के तो उन्हें देखने के लिए कॉलेज में टाइम से पूर्व ही गेट पर खड़े इंतज़ार करते होते | लड़के तो लड़के लड़कियां भी उनके उतनी ही दीवानी थी | जहां तक मैं समझती हूं साहित्य में रुचि रखने वाले शायद ही कोई वंचित होंगे , जिन्होंने दीदी पर कविता नहीं गढ़ी होगी | दीदी बहुत ही शालीन - सोबर किस्म की थी , गुस्सा तो उन्हें कभी आता ही नहीं था , जब कभी आता भी तो वो अपना विवेक नहीं खोती | वह हंसती तो लगता फूल खिले हो और मलयानिल बिखर जाता चारों तरफ | कॉलेज के प्रोग्राम में उनका स्पीच सुनने लायक होता था | शब्दों का तो जैसे भंडार हीं था उनके पास , शब्दकोश पलटने की कभी जरूरत नहीं पड़ी मुझे , जो भी पूछना होता दीदी फटाफट उसके मायने बता देती मुझे |
मुझे बहुत मानती थी | थी तो वह साधारण परिवार से , मगर मेरी हर छोटी - बड़ी डिमांड वह पूरी करती | कभी-कभी मैं मां को बोलकर उनके ही संग रात भर पढ़ते , इधर-उधर की बातें करते और ना जाने कब सो जाती पता ही नहीं चलता | सुबह 4:00 बजे हीं वह मुझे जगा देती और कहती - फ्रेश होकर रस्सी कूदकर आओ और मुझे न चाहते हुए भी वह सभी कुछ करना पड़ता , जो दीदी कहती और फिर दो कप कॉफी लाकर पढ़ने बैठ जाती | मुझे भी उनके साथ 8:00 बजे तक पढ़ना पड़ता | वैसे भी वह कई भाषाओं की जानकार थी | उनके बेडरूम से सटे बालकनी के पास उनका एक छोटा सा स्टडी रूम था , जिसमें ढेर सारी बुक करीने से लगे थे , सभी पर प्लास्टिक के कवर लगे हुए थे , उन्हें किताब से बहुत प्यार था | अपना रुपया मुझ पर या बुक खरीदने पर ही खर्च करती | उन्हें कभी भी नहीं देखा फैशन का सामान खरीदते हुए | लेकिन उनकी दो कमजोरी थी - एक परफ्यूम और दूसरा नेचुरल कलर लिपिस्टिक , वह बहुत पसंद करते थी | बाकी बिंदी तो मैंने उन्हें कभी लगाते नहीं देखा , पार्टी में भी नहीं | गर लगाती तो शायद चांद भी शर्मा जाता | यदा - कदा उनका लेख , कविता - कहानी वगैरह छपता रहता | पता साथ छपने के कारण पत्रों का भंडार लग जाता और उन पत्रों को पढ़ने में मुझे भी खूब मजा आता | दीदी के कुछ पाठक तो इतने दीवाने थे कि - अपना रंग , कद , उम्र , योग्यता , तस्वीर सहित भेज देते जैसे कोई अपने रिश्ते के लिए अखबार या पत्रिका में इस्तेहार दे रहा हो |
पेनफ्रेंड आदित्य जो दीदी को बराबर पत्र लिखता और दीदी भी उनके सभी पत्रों को जवाब देती | आदित्य जब उनसे मिलने घर आया तो दीदी ने बहुत ही सम्मान के साथ उनका स्वागत किया | वैसे भी घर के सभी लोग दीदी को बहुत मानते थे , इसलिए उनके मेहमान को भी मानना हीं था | करीब सप्ताह भर वह रहा , इसी बीच हम लोग शिमला की बर्फीली वादियों में उनके साथ घूमे , स्केटिंग की , फिल्म देखा वह भी 1 दिन में दो शो | यह वाकई रिकॉर्ड तोड़ने वाली बात थी , दीदी को तो फिल्म देखे महीनों गुजर जाता , वह भी टीवी पर और सिनेमाघर तो जैसे उनके लिए अमेरिका हो |
आदित्य के पिता एसपी थे और आदित्य उनका बड़ा लड़का था | धीरे-धीरे दीदी और आदित्य दोनों एक दूसरे के कितने करीब आ गए , यह तो शायद दीदी भी नहीं जान पाई थी | अब वह महीने , 2 महीने में अक्सर आ जाते | दीदी का उनके प्रति झुकाव परिवार वाले को भी समझते देर नहीं लगी | दोस्ती तक तो ठीक था , लेकिन दूसरी जाति का होने के कारण परिवार वाले को अक्सर डर बना रहता - कहीं दीदी के सामने वो शादी का प्रस्ताव न रख दे | धीरे-धीरे परिवार वाले दीदी से ठंडी शरबत नहीं गर्म चाय की तरह बातें करते , जिसमें कभी-कभी होठ जल जाना स्वभाविक था | दूरियां बढ़ती गई परिवार से और आदित्य उतना ही करीब आता चला गया दीदी के |
आदित्य ने आईएस की परीक्षा पास करनी ली और ट्रेनिंग में जाने से पहले वह दीदी के परिवार वाले से शादी की बात करने आए थे | आंटी - अंकल सहित भैया ने भी आदित्य को भला बुरा कहा | उस वक्त दीदी घर पर नहीं थी , जाते - जाते यह भी कहा कि - अगर लवली की जान तुम्हें प्यारी है , तो फिर उसे कभी मिलने की कोशिश नहीं करना | वरना उसे ........ हमलोग ...... घराने से हैं और यह भी कभी बर्दाश्त नहीं करेंगे कि वह दूसरी जाति वाले से रिश्ता करे | मैंने यह सारी बातें सुन ली थी और आदित्य को उम्रकैद के मुजरिम की तरह मायूस होकर जाते हुए देखा था | सूर्य पर जब ग्रहण लगता है , तो महसूस होता है , वह पूरी तरह टूट गया | मैं दौड़कर उनके पास गई और फिर उन्होंने एक पत्र लिखकर मुझे दिया , कहा - दीदी से कहना मुझे माफ कर दे और आंखों में सागर छुपाए मेरी नजरों से ओझल हो गए |
शाम को जब दीदी घर आयी , तब चाय - नाश्ते के बाद मैंने वह पत्र उन्हें दे दिया | पत्र पढ़ते ही मानो उनके पैरों तले जमीन फिसल गई थी , लगा था जैसे पहाड़ टूट पड़ा हो और वह लहू लुहान होकर छटपटा रही हो | आंसुओं के उमरते हुए वेग को भी वह कहां रोक पाई थी | खुशबू से भरे जमीन को बंजर बना दिया उन्हें यह पल | पालने वाले कैसे माली बने जो खाद की जगह तेजाब डाल दिए , जिंदगी के बाग में |
एक सपना बुना था आदित्य के संग जीने की वह भी राख की ढेर पर सो गया | अब तो न उम्मीद है न उन सपनों के सच हो जाने का इंतजार | दीदी ने मेरे गोद में सर झुकाए खूब रोया था और कहा था - निधि मैं उनके बिना नहीं जी सकती और वह ... वह भी मेरे बिना मर जाएंगे | दीदी में मां दुर्गा का वह रूप , भयावह चेहरा न जाने कहां से आ गया था , मैंने पहली बार देखा था उनका यह रूप | यह मां दुर्गा का ही तो रूप था इसलिए तो दीदी ने उनलोगों को माफ़ न करके भी भावनाओं की सागर में डूबकर माफ़ी दे दी थी , अपने प्यार की बलि चढ़ाकर |
वह चाहती तो परिवार के वगैर इजाजत शादी कर सकती थी | परिवार नहीं , कानून तो उनके साथ था | लेकिन उन्होंने अपनी खुशी की खातिर ऐसा नहीं किया और दांव पर लगा गए सारे सपने , आखरी शब्दों के साथ ही | वैसी बेचैनी मैंने जिंदगी में कभी किसी में नहीं देखी थी | क्या प्यार इतना गहरा होता है ? जिसे भुला पाना या भर पाना संभव नहीं ! मैंने उन्हीं से जाना है , महसूस किया है |
दिन , महीने गुजरते गए - वे अब कुछ भी लिखती - पढ़ती नहीं , गुमसुम सी खोई रहती , जैसे सब कुछ आदित्य के साथ चला गया हो | उनकी याद दीदी के दिलो में कभी न खत्म होने वाली द्रोपदी के चीर के सामान थी , सीने में दर्द समेटे लाचार , कमजोर , बेसहारा , बीमार होकर जीने लगी थी | अब वह हंसती भी तो लगता उनकी मुस्कुराहट में अजीब सा दर्द छुपा है | अब नहीं झड़ते फूल और न ओस की बूंद ही उनके चेहरे पर अंगराई देती | जब पानी की रेत में तंबू नहीं गड़ते और न पतझड़ में फूल खिलते हैं , तो फिर दीदी के चेहरे पर वगैर आदित्य , सावन कैसे बरसता ? वे बीमार रहने लग गई , उन्हें सारी रात नींद नहीं आती थी | मैंने भी कई दिन जागकर उन्हें सुलाने का प्रयास किया था , नींद की गोली भी उन्हें सुलाने में नाकाम रही |
इसी बीच पापा का ट्रांसफर हो गया और न चाहते हुए भी मुझे उन्हें छोड़कर आना पड़ा |
दीदी की तमन्ना थी मैं डॉक्टर बनूँ और इक्ताफाक कि मैं डॉक्टर बन भी गई | भगवान को शायद यही मंजूर था कि - जिसने डॉक्टर बनने की चाहत जगाई हो आज मै उन्हीं का इलाज करू | रूम नंबर 11 वाली पेसेंट कोई और नहीं मेरी लवली दीदी ही थी | परिस्थितियों ने मिलवाया भी तो ऐसे वक्त जब वह अपना संतुलन खो बैठी थी | जिंदगी ने या फिर वक्त ने कितने अन्याय किए उनपर , इसकी गवाही तो प्यार को तिलांजलि दिलवाकर शेष रह गए निस्पंद कलेवर ही दे रहे थे | मैं तो मजबूरियों के बीच उनसे कोसों दूर पड़ी थी और अपने दर्जनों पत्र का जवाब न पाकर पत्र लिखना हीं बंद कर दिया था एवं अपनी पढ़ाई से उलझ गई |
सदियों से लोगों ने प्यार करने वाले को जुदाई करार दी , मगर प्यार हारा नहीं वह तो जिंदा है और जिंदा रहेगा | जिस दिए को हम जला नहीं सकते उसे बुझाने का भी अधिकार हमें नहीं | प्यार के तूफान का वेग किसके रोके रुका है ? सालों से उनका इलाज चल रहा था , मगर कोई सुधार नहीं थी | मैंने ऐसे कई मरीजों को ठीक किया था , इसलिए डॉक्टर और उनके घर वालों की उम्मीद मुझसे बंध गई थी |
ऐसा सितम कि हम भी टूट गए और टूटते चले गए उन्हें देखकर , लेकिन इस पागलपन में कसूर किसका था ! ...... ( कहानी :- रुपेश आदित्या , एम० नूपुर की कलम से )
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