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उत्तरप्रदेश के बलकेश्वर निवासी सुरेश कुमार जिनकी उम्र 75 वर्ष है , 26 जनवरी गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर क्षुब्ध होकर वृद्धाआश्रम में हीं अपने जिंदगी के बचे हुए हर पल को गुजारने पर बिवश होकर अपने मन को तैयार कर लिया और चल दिए रामलाल वृद्धाआश्रम में दस्तक देने |
सुरेश कुमार पहले व्यक्ति नहीं जिन्हें वृद्धाआश्रम का सहार लेना पड़ा | बल्कि आज अगर भारत की बात करे तो 80% से ज्यादा वृद्ध लोग अपने घर में घुटन महसूस कर जी रहे है अपनी जिंदगी | उन्हें वह सम्मान नहीं मिल पाता जिनके वे हकदार होते है और बच्चे बोझ समझकर उन्हें सिर्फ अनाब - सनाब हीं नहीं बोलते बल्कि अपशब्द बोलते हुए घर से निकल जाने तक की धमकी भी दे डालते है | हर बच्चे यह भूल जाते है कि - इसी दौर से कभी उनको भी गुजरना पड़ेगा |
सुरेश कुमार की वृद्धाआश्रम में पहुँचने की बात जैसे हीं प्रकाशित हुई | वृद्धाआश्रम के अध्यक्ष शिव प्रसाद शर्मा के पास सुरेश कुमार के घर से फोन आया कि - उनका बड़ा लड़का अपने पिता को लेने वृद्धाआश्रम पहुँच रहे है | फिर क्या था अध्यक्ष महोदय ने इस बात को सुरेश कुमार तक पहुँचाया तो सुरेश कुमार भावविहल हो गए और उनकी आँखों से आंसू छलक पड़े | मगर यह आंसू ख़ुशी के थे , अपने बच्चे के आने की ख़ुशी के थे , घर जाने की ख़ुशी के थे |
उनके पुत्र कोमल कुमार वृद्धाआश्रम पहुंचकर अपने पिता को गले से लगते हुए माफ़ी मांगी | साथ हीं कोमल ने वृद्धाआश्रम में भी लिखित माफ़ी मंगाते हुए अपने पिता की अच्छी तरह देखभाल करने का आश्वासन देकर अपने पिता को ले जाने की इजाजत ली | साथ में यह भी कहा कि - छोटे भाई की बातो में आकर हम सब से इतनी बड़ी गलती हो गई | अध्यक्ष महोदय ने कोमल के साथ उन्हें जाने दिया |
कहा गया है - गर सुबह का भुला शाम को घर वापस आ जाए तो उसे भुला नहीं कहते | मगर कभी - कभी बहुत देर हो जाती है माफ़ी मांगने में या फिर अपने माता - पिता को पुनः घर वापस ले जाने में | वो खुशनसीब है जिनका सर माता - पिता के आशीर्वाद के हाथ के नीचे गुजर रहा है | यह कहानी सिर्फ एक समाचार नहीं बल्कि सच्ची घटना है जिसे हर किसी को जीवन में बीनना चाहिए | आखिरकार लोग कब तक कहते रहेंगे कि - एक माता पिता चार छे बच्चो को पाल लेते है जबकि चार छे बच्चे मिलकर भी एक माता पिता को नहीं पाल सकते |
अपने पिता को वृद्धाआश्रम से लेकर कोमल निकल हीं रहे थे कि - एक वृद्ध मोहनलाल की जुबां बोल पड़ी - काश ! मेरा बेटा मुझे भी लेने आ जाता | एक पिता की वेदना इस तरह करवटे बदल रही है और रेगिस्तान में सावन बरस जाने का इन्तजार जिसमे कई मोहनलाल मौजूद है |
हम ऐसा नहीं कहते कि यह हर जगह है | परन्तु जहाँ भी वृद्ध लोगो को इस स्थिति से गुजरना पड़ता है , वह घर खुशियों से भरे पेड़ की छाँव कभी नहीं पा सकता | इस पर सोंचना होगा - आज देश का एक बहुत बड़ा समस्या लगभग हर चौखट के अन्दर मौजूद है , जहाँ एक बेवश लाचार माता - पिता ख़ामोशी भरी जिंदगी जीकर घुटन महसूस करते है | माता - पिता से वह अधिकार छीन लिया जाता है जिनपर उनका हक़ है | लेकिन वहीं माता - पिता बच्चो से वह खिलौना कभी नहीं छिनते जिस खिलौने से बच्चो को प्यार होता है | इस भावना को समझने में बच्चे बड़े हीं देर कर जाते है |
वैसे बॉलीवुड में बनी बहुत सारी ऐसी फिल्मे है जिसे लोग देखकर भी अपनी जिंदगी में नहीं उतार पाते | मगर वहीं हमें याद आ रहा है एक फिल्म - "बागवान" जो शायद एक इतिहास लिख दिया | इसका वजह था - इस फिल्म में भूमिका नभाने वाले महानायक अमिताभ बच्चन और ड्रीम गर्ल हेमा मालिनी की अद्दभुत जोड़ी | इस फिल्म को देखकर बच्चे कितना सीख पाए , यह तो कहना मुश्किल है | मगर इस फिल्म का नाम हर किसी के जुबान पर एक उदाहरण बनकर आज भी अपनी अच्छाई का मुहर लगाता हुआ जान पड़ता है |
चलते - चलते हम एक बात और कहना चाहेंगे -
अपना धन सिर्फ अपने घर , परिवार और बच्चो पर मत लुटाइए | क्या ठिकाना कि
कभी आपको भी वृद्धाआश्रम का दरवाजा खटखटाना पड़ जाए | आप भी एक बागवान बनिए |
हो सकता है आपके बुढ़ापा में भी इतनी ताकत मौजूद हो कि बच्चे आपको छोड़ना
पसंद न करे और बागवान में एक अनाथ बच्चे की भूमिका निभाने वाले कोई सलमान
खान आपको भी भगवान मान ले | समय रहते आपको सोंचना होगा ! उम्र बढ़ने के बाद
दामन कमजोर पड़कर हाथ से सबकुछ फिसल जाता है | ........ ( न्यूज़ / फीचर :-
रुपेश आदित्या , एम० नूपुर की कलम से )
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