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क्या सोंच रहे हो तुम , मालुम नहीं !
किसे देख रहे हो , एहसास नहीं
लेकिन एहसास मुझे है
तुम थोड़ी राहत पाने की खातिर
बैठे हो यहाँ पर
लेकिन तुम्हें क्या मालूम ? तुम्हारे लिए यह जगह , सुरक्षित नहीं
या फिर ! गुजरने वालों के लिए मौत का कुआं न बन जाए , उनका सफ़र
तुम भी अनभिग्य , वो भी अनभिग्य
कौन तृप्त होगा क्या पता ?
यह तो वक्त का तकाजा है
लेकिन अच्छा होगा , तुम अपनी जगह आराम करो
हाँ याद आया ............. !
तुम्हारे आराम का जगह तो विलुप्त हो रहा है
तभी तुम सफ़र कर , थक कर इतनी दूर बैठे हो
फिर भी ! तुम्हारी अनभिज्ञता से डर लगता है
वक्त कहीं , इंसान की तरफ करवट न बदल लें !
और तुम इस धरती से विलुप्त न हो जाओ
क्यूंकि आज के इस कलयुग में
इंसान और जानवर की सोंच में ज्यादा फर्क नहीं !
डर लगता है मिट्टी लाल न हो जाए , किसी लहू से | ......... ( कविता :- रुपेश आदित्य )
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