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जिंदगी में हर दर्द , आज बेजान सा क्यूँ है ?
पतझड़ / रेगिस्तान भी शर्मसार सा क्यूँ है ?
कोरोना से त्रस्त आँधियों की दौर में , आदमी की कीमत ख़ाक है
जहाँ बिक रही है हर सांसे , गिरवी के बाद है
जिंदगी में हर दर्द बेजान सा क्यूँ है ?
माँ - पिता की अंतिम ख्वाहिशे भी , बच्चे कर रहे बेजार है
आज लाशों की ढेर पर झपट रहे कुत्तें हजार है
अब हर चाहते तमाम हो गई और सपना धुंआ - धुंआ सा है
जिंदगी एक धोखा है , जानते हुए भी इंसान अंजान सा क्यूँ है ?
जिंदगी में हर दर्द बेजान सा क्यूँ है ?
लॉकडाउन अब एक सबब बन गया है
सबक / सीख / उम्मीद , थम सा गया है
80 करोड़ जनता की अंजुरी में अन्न डालने को कदम बढ़ा रही सरकार है
दीपावली तक हाथ फैलाए रखने पर ये बेगुनाह लाचार है
जिंदगी में हर दर्द बेजान सा क्यूँ है ?
क्या खूब रंग लाई है , भारत की आजादी
जहाँ आज फिर गिरवी पड़ी देश की आबादी
अंग्रेजों से लड़ना तो बहुत सरल था लेकिन
कूटनीतिज्ञ से लड़ना पड़ रहा है , अब भारी
जिंदगी में हर दर्द बेजान सा क्यूँ है ?
एक सौ तीस करोड़ की जनता में अस्सी करोड़ आबादी
आज फिर बेजार / बेहाल / लाचार सा क्यूँ है ?
खून की आंसू रो रही हर नयन बेक़रार
आखिर ! ये तड़प लाईलाज सा क्यूँ है ?
जिंदगी में हर दर्द आज बेजान सा क्यूँ है ?
पतझड़ / रेगिस्तान भी शर्मशार सा क्यूँ है ?
स्वरचित कविता जिसका शीर्षक है - "तड़प ये दिन - रात की" जो एम० नूपुर की कलम से लिखी गई है |
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