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कब तक !
गाँठ पड़कर जुड़ते गए और टूटते रहे हम रात - दिन
तपिश / क्लेश / पीड़ा को समेटे
चाहत के समंदर में डूबा मन
लेकिन बंदिशों की आड़ में कैद मैं
पहरे लगा गए प्यार पर भी , जो सिर्फ मेरा है
क्यूँ नहीं हम प्रगट करते , प्यार की तफसील ?
तोड़ने को विवश मन , सामाजिक सिद्धांतो को
चाहत अनंत , जिंदगी अब अंत है
फिर भी !
थोपे गए संबंधो में जीते है
हर दिन जख्मों को सिलकर
आखिर क्यूँ ?
कविता :- आदित्या , एम० नूपुर की कलम से
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