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"तड़प ये दिन रात की"
सोंचा था मैंने भी अपनी प्रेयसी को बेलेन्टाइन डे पर लाल गुलाब दूँ
लेकिन सोंच विखर गए तार - तार होकर
सामने टीटू बाघिन को लोगों ने मार डाला और घसीटते हुए अपने साथ ले गए
पुलिस चौकी नहीं हमारे लिए , बयाँ दर्ज कहाँ करूँ
जंगल काट रहे है लोग
हमें मार कर खाल उतार रहे है लोग , चंद रुपये की खातिर
मेरे घर से मुझे अलग क्यूँ कर रहे हैं
मै कहाँ जाऊं ?
जंगल पर मेरा हक़ है , इसी में हम रहते है / विचरते है
जंगल हीं मेरा घर है ,वे लोग जरा सोंचकर देखे आत्मा से
तो उन्हें एहसास होगा मेरी तड़प का
अब मै यह फूल किसको दूँ !
कविता :- आदित्या , एम० नूपुर की कलम से
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