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"15 अगस्त पर विशेष "
मेरी शादी की घड़ी बहुत पास थी , यह दिन मेरे लिए अनंत ख़ास थी
दुल्हा सेहरा सजाकर मेरे द्वार खड़ा , वरमाला पूर्णिमामयी रात थी
कभी उसने तो कभी मैंने , चुपके - चुपके तीरे नजर रूप दीदार किया
मन हीं मन एक - दूसरे को बहुत प्यार किया
प्यार भी अजीब रोग है , जो लगाए नहीं लगती
और , फिर ! बुझाना चाहो तो बुझाए नहीं बुझती
सात फेरे और सात वचनों के साथ विवाह संपन्न हुआ
विदाई आंसू लिए था , पर सुप्रभात अर्पण हुआ
रास्ते भर उनका हाथ मेरे हाथ को स्पर्श करता , पुनः सहमता
स्पर्श गर्म - गर्म खुशनुमा कई उमंगों - तरंगो से भरा था
रास्ते भर हम उन्हें , उनकी स्पर्श को पालते रहे
अपना आने वाला कल , प्यार से सींचते और सहलाते रहे
एक पल के लिए मैंने सोंचा था , क्यूंकि मन हवा का झोंका था
विवाह इतना रोमांचक / सुखद होता है , पहले क्यूँ मालुम न था ?
काश ! पहले पता होता
तो सुखद अनुभूति में इतना विलम्ब न होता
ओस की बूंद ठंढी - ठंढी हवायें गुन गुना रही थी
मेरे प्रीतम के संग , शबनमी प्रेमगीत बरसा रही थी
उनकी आँखों में मैंने पढ़ा था , वसंती गीत
जो उन्होंने बुने थे ख्वाब और शेयर किया था प्रीत
उनकी तमन्ना प्रथम मिलन , न्यूजीलैंड में संग - संग
यह सुन मै भी रोमांचित और हो गई थी मगन
जब उनकी लिखी बातें याद आती
तो पुलकित मन वसंती गीत गाती
गाड़ी पर उनके प्रश्न वाचक चिन्ह यहीं लिख रहे थे
अब तो बताओ चलोगी न ! मेरे होठ सिल रहे थे
मैंने शर्माकर खामोश लव से हामी भरी थी
जहाँ ले चलो , चलूंगी , सातों जन्म तुम्हारी हीं रहूंगी
अब गाड़ी दरवाजे पर खड़ी थी
जहाँ मेरा ख्वाब / जन्नत / आरजू / मेरे हमसफ़र / मेरी तमन्ना थी
आरती उतारी गई , प्रवेश हुआ मेरी आकांक्षाओं का
जीवन के सुखद चौराहों का
चार दिन के बाद का मिलनमय टिकट मेरी पलको पर था
सोंच मन जीता हुआ इन्द्रधनुषी प्रकाश बनकर , जुदाई सिल रहा था
बिन मौसम बरसात में हम भींग रहे थे
आईने में अपनी सूरत सोलह श्रृंगार युक्त खिल रहे थे
अभी तक तो मैंने सम्पूर्ण दुनियां की खुशियाँ हीं पी थी
गम का सैलाब भी उमड़ आएगा जीवन में , नहीं जी थी
चंद घड़ी बाद हीं मेरी आरजू पर पानी फिर गया
दो देश की लड़ाई में मेरा प्रियतम मुझसे छीन गया
सात फेरे , सात वचनों को भुलाकर
देशभक्ति सेवा में वो लीन हो गए
डटकर लड़ते - लड़ते
बोर्डेर पर हीं शहीद हो गए
मैंने समझा है उनको बहुत करीब से
दम निकला होगा उनका बन्दे मातरम् संगीत से
उस वक्त आह ! भी निकली होगी
मेरी आरजू को तड़प बेकल होगी
उन्हें पता होगा यह धड़कन की आखिरी लड़ी है
अब तो तन्हा सफ़र करने की घड़ी है
मुझसे कुछ कहने को मन , जुबां भी तड़पा होगा
सात फेरे वचनों को याद कर , मेरे मिलन को मचला होगा
कैसे बताऊँ उनकी ब्यथा , मेरा भी वहीँ हाल है
ऐसे में कैसे उनका मिलना भुल जाऊं , दिल बेकल बेहाल है
जिस्म तो कब का टूट गया , जब श्रृंगार रूठकर बिखर गया
तड़प मेरी कि , मेरा सानिध्य को , उनकी हर सांसे तरसा होगा
मन की बातें मन में रह कर , दम तोड़ा होगा
लेकिन ! देश के लिए वह शहीद हुए हैं
ऐसा सोंच फक्र से उनके मन में
खुशियों का सावन भी बरसा होगा
मरना तो सभी को है एक दिन
तय है दिन
खुशनसीब वो है , जिन्हें देश सैलूट मारता है
उनके शहीद जिश्म पर तिरंगा लपेटता है
फक्र से मै भी कहती हूँ
मै शहीद की सधवा हूँ
आज भी वो मेरे पास है
मै नहीं मानती , मै विधवा हूँ
मै विधवा नहीं , मेरी चुनरी रंगीन है
मै उस जवान की अमानत हूँ , जो अमर है
बस दिल में एक तड़प है , काश ! अंतिम घड़ी उनके करीब होती
उनके सर को अपनी गोद में जकड़कर , जुदाई रोयी होती
तो , मेरा धड़कन पाषाण न बनता, सैलाब बह गया होता
और मै अपने प्राण / प्रीतम को जी भर देख ली होती ,जो नसीब न हुआ
चेहरा भी , जीभर न देखा , जो मिलन करीब न हुआ
इंतज़ार था जो अधुरा रह गया
शादी सिर्फ दो जिश्म का मिलन नहीं , न इसमे सौदा होता है
यह दो आत्मा का संगम है , जिसमे सावन को डूबकर जाना और बहार पाना होता है
इतनी कम उम्र में , मै इतना तड़प नहीं जानती
गर आज उनकी जुदाई मुझे न मारती
पिघलता है आज भी हिम शिखर से सैलाब
मन समन्दर बन मांगता है , विस्तृत फैलाव
लेकिन अपनी तड़प / वेदना / क्लेश / पीड़ा कैसे बताऊँ ?
क्लेवर बिखर गया मोर कहाँ से पाऊं !
आज फिर दिल को समझाया
प्यार एक सुनामी है , जिसमे डूबकर जाना है
उनकी याद हीं काफी है , मेरे जीने के लिए
चंद घड़ी सफ़र और साथ काफी है , तमाम उम्र पीने के लिए
उनको याद कर मैंने हर खुशियाँ मनाई है
उनका प्रतिबिम्ब नज़रों के करीब और स्पर्श अपने गेसुओं में पायी है
ख्वाबों में हीं मैंने , उनके संग विश्व भ्रमण किया
हर पल उनका दामन पकड़ , सुखद अनुभूति महसूस किया
मगर दिल फिर बेकाबू है
आज फिर वसंत की ठंढी हवा चल रही है
चैन मेरा लूट रहा है , मन मांग रहा फिर से मोर
मोर कहाँ से लाऊं , कहाँ से लाऊं , जो अमर हो गया
बेचैन मन , पीड़ा , तड़प आज भी जारी है
75 वर्ष हुए स्वतंत्रता के
मन पुलकित हुआ सोंचकर
रंग बसंती रंगों में मिला , चोला काफी है
कविता :- आदित्या , एम० नूपुर की कलम से
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