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"रफ़्तार"
कभी - कभी जिंदगी ठहर जाती है
और वक्त फिसल जाता है दामन से
गति स्नेह - स्नेह , उम्र बुढ़ापा दे जाता है
हम बौखला उठते है प्यासे
जबकि समंदर तो कभी पास था , पाने के लिए
और सावन अंगराई भरती रही जीने के लिए
हम मग्न / बेसुध मृग मरीचिका की तरह
दौड़ते रहे / भागते रहे सड़को पर नंगे पाँव
मंजिल मिली नहीं तलाश जारी था
हम मौन भी रह न सके , कुछ बोल भी कहाँ सके
उम्र के आखरी दौड़ में थककर चूर - चूर खड़े हैं
अहम लिए / बहम लिए
ये कैसा अहम / बहम जिसमे हाथ खाली रह गया
कोई सलामी न गया प्रश्न अंतस में कैद
आईने पर धुल जम गया
चेहरा धुंधला नजर आने लगा
सोंच तो आज भी बहुत है सोंचने के लिए
मन कहता है - बोल दूँ अनकही बातें
जो संजोकर रखा है , तुम्हें बोलने के लिए
पर कैसे कहूँ कि तुम हीं मेरी प्यास हो
जीवन सरिता में बहती हुई दूर फिसल गई
जिंदगी रुकी नहीं न तुम रुके
हम अकेले हीं रह गए प्यासे तड़पने के लिए
स्नेह मुख से तड़प उठता है आज भी बार - बार
मेरी अतृप्त आशाएँ , आज भी अंगराईयां लेती है
तन्हाइयों में हम सोलह सावन में पहुँच जाते हैं
मगर सच तो यह है कि - दर्पण झूठ नहीं बोलता
और हम सच का जाम पी नहीं पाते
कविता :- आदित्या , एम० नूपुर की कलम से
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