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"सारथी साथ निभाना"
सोंच नहीं हिम्मत देती कि अंजुरी फैला दे हर डगर
तन्हा पर गई मै , मुझे थाम लो ऐ शहर
जिंदगी अब खुद पर हीं बोझ बन गई है
रातों की नींद भोर में सिमट गई है
भूखा मन आज सुखी रोटी को बेताब है
कैसे कहें हम अपनी व्यथा तुमसे , मेरे शब्द बेजान है
पाँव में बेड़ियाँ अस्मिता की , हम लाचार है
जिंदगी पतझड़ में खो रही , पल - पल बेजार है
तमन्ना है कि हम फिर से खड़े हो जायेंगे
हौसला भी है कि हम समन्दर नहायेंगे
मगर अफ़सोस कहाँ से लायेंगे हम पानी
यहाँ तो पीने के लिए भी एक बूंद नहीं , न पास है कोई माली
सपने ऐसे बिखर रहे , जैसे आसमां का हो तारा
चाहते अस्त होने से पहले मेरे सारथी , दे दो हमें सहारा
कैसे बताएं कि मेरा क्या हाल है ?
समन्दर भरा है कहीं और हम बेहाल है
तड़प जल बिन मच्छली सी है
जरुरत बस सुखी रोटी , नमक , थोड़ी पानी की है
बगिया उजड़ रहा है हौसला का , तेज़ाब सराबोर है
कैसे बताए तुम्हे एहसास , जिंदगी अस्त है की भोर है
गिर न जाए डर लगता है
तन्हा भी कोई सफ़र करता है
बच्चें दौड़ते है देखकर थामेगा कोई और
हम कैसे दौड़े , हमें दिखता नहीं है डोर
हम फिर भी आस लगाए बैठे है
फ़ुरकत में प्यास बुझाए बैठे है
हम वो हौसला है कि आँधियों में दीप जलाएंगे
एक दीया बुझ गया तो क्या हुआ ? हम सैकड़ों दीप जलाएंगे
ओ मेरे सारथी साथ निभाना , गिर न जाए हम कहीं हाथ बढ़ाना
कविता :- आदित्या , एम० नूपुर की कलम से
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