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"काश ! तुम करीब होते"
मन ने ये सोंचा था ! तुम मेरे करीब रहो
पर ऐसा हो न सका , तुम दूर हो गए
मन ने ये भी सोंचा था - मै सिर्फ तुमसे प्यार करूँ
पर ऐसा भी हो न सका और हम किसी के हो गए
मन ने सोंचा था - तुम्हें हमराज बनाये
पर ऐसा भी नहीं हुआ , आखिर क्यूँ ?
एक सवाल आज भी , मेरे मन के शिवालय में उफान लेता है
और तुम सवाल बनकर करीब आ जाते हो
तुम जितना करीब आते हो , तड़प उतनी हीं बढ़ जाती है
यह तड़प उस दीप सी है , जिसकी ज्योति बुझने वाली हो
यह तड़प बिन पानी मच्छली सी है , जैसे निष्पंद क्लेवर को इंतज़ार हो कुछ पल और जीने की
कुछ सांसें और पीने की , कुछ प्यास बुझ जाने की
मन में तड़प है , कड़कती बिजली जैसी
एहसास मन , सावन बरसा जाने की
बिजली कड़कती रही बादल घुलता रहा
आँखें तकती रही बेकल इंतज़ार में
अब सूर्य उदय को था , लोगो का जामावारा देखकर मेरे कदम ठहर से गए
देखा उस ख्वाब से सांसे मुक्त हो गई थी , निष्पंद क्लेवर निढाल पड़ा था
अब चिड़ियों की चहचआहट थी , बस और कुछ नहीं
लालसा समाप्त , उम्मीद शेष कुछ भी नहीं बचा अवशेष पर
बस एक चाहत खुली पत्थरीली आँखों में मौन था , थोड़ी प्यास बुझने जैसी
मैंने एहसास किया था , पन्ना पलट गया
मेरे पास निर्झरनी थी , डायरी निकाली और लिखने लगी इतिहास
इतिहास अभी बाकी है , पत्थरीली शमा परवाने की , जन्म मृत्यु की
सच्चाई यह कि खाली हाथ जाना है , तो फिर क्यूँ ?
समाज के चौकीदारों ने ठेका ले लिया पहरेदार बनने का
शिकायत रब से नहीं , शब्द रचईता से है
प्यार , मुहब्बत , उल्फत सभी अधूरे हीं शब्द जिंदगी में सजाया
शिकायत है ठेकदारो से - आखिर क्यूँ नहीं पुरे होने देते शब्द सरिता ?
जो बहाव बनकर रूप ले ले सागर का
पर ऐसा नहीं होगा , क्यूंकि शब्द भी अधुरा है और समुन्द्र भी
ऐसे में ख्वाब , उम्मीद , इंतज़ार , जज्बात सब के सब आधे - अधूरे है
नियति लिखा है - अधुरा हीं रह जाना
बुनने वाले बुनकर चले गए दूसरा लोक
उन्हें क्या पता था ? ठेकेदारों के हाथ से पीस जाएगी जिंदगी अनमोल
पर ठेकेदार खाली हाथ नहीं जायेंगे , ये जायेंगे अनंत मासूम ख्वाब को लेकर
तड़पता , सिसकता , आहें भरता आह !
बलाए इनके साथ हीं जायेगी हर हाल में
तो दुआ , हल्की व्यंग्नात्मक मुस्कराहट लिए इनकी आत्मा बोल पड़ेगी
काश ! तुम ठेकेदार न होते , काश ! कि तुम पहरेदार न होते
कविता :- आदित्या , एम० नूपुर की कलम से
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