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"उफनता हुआ सैलाब"
गम , हिमशिखा बनकर बहने को बेताब है
नयनों में दर्द उफनता हुआ सैलाब है
जब्ज नहीं हो पाएगी , अधरो पर
जिंदगी सुनामी न ला दे
तुम एकबार अपने कंधे पर इसे बरसाने की इजाजत दे दो
तुम्हारी फुर्रकत में दिल का ये हाल हुआ है
स्वयं तुमको समर्पित कर , मन कंगाल हुआ है
अब तो न मौका है न दस्तूर है
मै और मेरा ईमान बेकसूर है
बेवफाई तुमने की , तुमने हीं दगा दिया
मैंने तो अपनी हर ख्वाहिशें , तुम पर चढ़ा दिया
तुम मेरा सर्वस्व पाकर आज रौशन हो गए
मै अपनी रौशनी लूटाकर विलाप करती , अँधेरे में खो गई
फ़रियाद किससे ? संजीवनी कहाँ से पाऊं !
गिरवी पड़ी है क्षमता , दरस कैसे दिखलाऊं ?
मन कहता है - अब और लगान नहीं
जुर्माना भर दिया है मैंने , वक्त का तकाजा , फिर से नूरमय सहर लाना होगा हमें
टूटना / बिखरना / गिरना / मुर्झाना शब्द लाचारी है
जिंदगी से , नाइंसाफी बईमानी है
इसलिए एक नया इतिहास रचना है , जमाने के लिए
बस इतना बता दो - जो हिमशिखा बनकर बरसने को बेताब है
आज गर तुम्हारे लब्ज सिले रह गए , मृग मरीचिका बन गए , तो मुझे अफ़सोस नहीं होगा
मगर फिर शिकायत मत करना
मैंने इंतज़ार में खुद को तपाया नहीं
फरियादी बन गम सावन बरसाया नहीं
अपने दागदार आँचल का हिमालय की चोटी पर फैलाव पाया है
तब से ये तमन्ना मेरी कि - तुम शाम से पहले नापाक मंशा गंगोत्री में अर्पण कर डूबकी लगा लेना
प्रकृति की दरियादिली का क्या कहना ?
कि समय तुम्हें माफ़ कर दे
सहर होने में देर नहीं , रात ढल जायेगी
बस एकबार अपने कंधे पर सावन बरसाने की मुझे तुम इजाजत दे दो
मेरी तपस्या , मेरा निर्णय चुनावी बन बेजार है
चौराहे पर खड़ा कदम बढ़ने को लाचार है
बस एकबार अपने कंधे पर इसे बरसाने की इजाजत दे दो |
आदित्या , एम० नूपुर की कलम से
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