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"आईना तुझे सलाम"
आज अहले सहर जब मैंने आईना देखा , तो आश्चर्य का ठिकाना न रहा
मेरी त्वचा कुछ मुरझाई सी नजर आई
मैंने चेहरा धोया अंतर नगण्य सा दिखा
अचानक मेरी परछाई मुस्कुरा दी और मै बचपन में लौट आई
याद है मुझे मै दादी की झुल्ली लटके बाजू देखकर
अपनी नन्हीं - नन्हीं उंगली से स्पर्शकर उनसे पूछती
दादी तुम्हारे बदन का मांस इतना ढीला क्यूँ है ?
दादी हल्की सी मुस्कुराती बोलती - मै बूढी हो गई हूँ न ! इसलिए
तब मै झट से पूछती - मै भी बूढी हो जाउंगी
मेरे मांस भी ढीले पड़ेंगे , बाल पक जायेंगे , मै लाठी लेकर चलूंगी
मेरी तोतली सवाल पर दादी खूब हंसती
और मुझे चूमती हुई बातें बदल देती
एहसास आज हुआ जब स्वयं को आईने में देखा , गुम था गुलाब की पंखुड़ियों सा निखरा त्वचा
कोमलता से भरपुर चमक इतना कि वाह ! निकल आये
इंसान स्वयं को भी देखकर दीवाना बन जाता है कभी - कभी , मेरा भी यहीं हाल था
कैसे बताएं हम तुम्हें कभी मेरा भी निखार मालामाल था
व्यक्तित्व आज भी है प्रभावशाली , इसलिए कि कृतित्व जिन्दा है
ईश्वर ने मुझपर मेहरबानी की थी, मन नहीं शर्मिंदा है
तन सुन्दर , मन पवित्र , कुंदन बना यह जादू कम नहीं
आज मुरझाई त्वचा को देखकर बहुत आश्चर्य हुआ , मगर अफ़सोस जरा भी नहीं
इसलिए कि मैंने अपनी सीरत लाजवाब बनाने में अपनी मासूमियत लगाईं है
अंजूरी में चांदनी भरकर अपनी खूबसूरती गंवाई है
मैंने सिर्फ इतना सोंचा था ! मरकर भी मुझे जिन्दा रहना है
सौगात आने वाले कल को सौपना है
अपना भी कोई फ़र्ज़ बनता है , पूर्वजों का हमपर कर्ज बनता है
मैंने अपनी हर सांसे लगा दी भारत की बेटी बनकर
मोह - माया से कोसो दूर उम्र फिसला गया , कदम बढ़कर
अपने सपनों को भूल बैठी जो कॉलेज के जमाने में देखा था
आज फिर सब कुछ याद आ गया
शरीर मर भी गया , तो इतिहास में हम सदैव जिन्दा रहेंगे
तुम्हारा तुम जानों , हम नहीं शर्मिंदा रहेंगे
चलना है तो चल दो अभी भी साथ , अन्दर जिन्दा है चांदनी रात
हमको मालूम है रौशन हुए तो , सेकेगी दुनियां सारी
बुझ गए जो हम तो , कभी चर्चा नहीं होगा हमारा
इसलिए कलम में आज भी मेरी वहीं जोर है
फक्र है मुझे कि इसका सदियों सदी नहीं कोई तोड़ है |
कविता :- आदित्या , एम० नूपुर की कलम से
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